अभिलेखों के बाद मुद्राएं ही एक ऐसा जरिया है, जो ऐतिहासिक तथ्यों को प्रमाणिकता के साथ प्रस्तुत कर सकता है। भारतीय शासक और मराठा साम्राज्य के संस्थापक छत्रपति शिवाजी के प्रभाव से उत्तराखंड भी अछूता नहीं था, क्योंकि यहां की मुद्राओं की बनावट तथा उसमें चित्रित सामग्री के ढंग की बनावट में काफी कुछ छत्रपति शिवाजी महाराज की अष्टकोणी मुद्रा का प्रभाव मिलता है।
इतिहासकारों के अनुसार, छत्रपति शिवाजी की अष्टकोणी मुद्रा भारतवर्ष में उपनिवेश बनाने वाली आठ विदेशी ताकतों के उन्मूलन (जड़ से उखाड़ना) के महान राजनीतिक संकल्प का प्रतीक थी। गढ़वाल नरेश महाराजाधिराज फतेशाह (1667 से 1714) ने 1699 में एक अष्टकोणी मुद्रा जारी कर छत्रपति शिवाजी महाराज के दृष्टिकोण की मान्यता और व्यापकता का प्रमाण दिया है।
उल्लेखनीय है, कि यह मुद्रा उत्तराखंड में स्थित श्रीनगर गढ़वाल राज्य की अन्य समस्त मुद्राओं से भिन्न अपनी मौलिकता लिए हुए है। अतः स्पष्ट है, कि इसके पीछे जरूर ही किसी विशेष दृष्टिकोण का आधार रहा होगा। 1635 ईसवी के कालखंड में गढ़वाल की राजमाता महारानी कर्णावती के समय में महाराष्ट्र के संत समर्थ गुरु रामदास बद्रीनाथ धाम की यात्रा करते हुए राज्य की राजधानी श्रीनगर में पधारे थे।
धर्मयुग साप्ताहिक के 28 जुलाई 1974 के अंक में प्रकाशित एक लेख के अनुसार, संत समर्थ गुरु रामदास द्वारा श्रीनगर पधारने के दौरान तत्कालीन सिख गुरु हरगोविंदजी भी वही उपस्थित थे। गढ़वाल की राजधानी श्रीनगर में राजमाता कर्णावती से राजनीतिक मंत्रणा के दौरान समर्थ गुरु रामदास द्वारा हिंदू राष्ट्र की भूमिका निर्मित की गई थी।
इसके बाद में छत्रपति शिवाजी महाराज के समकालीन भूषण, मतिराम, सुखदेव मिश्र तथा रतन आदि अनेक सत्कवियों ने श्रीनगर गढ़वाल पहुंच कर महाराजा फतेशाह को राष्ट्रव्यापी नई राजनीतिक गतिविधियों से अवगत कराया था। उस कालखंड के परम पराक्रमी नरेश फतेशाह ने छत्रपति शिवाजी को अपना आदर्श मानकर उनकी नीति का अनुसरण करते हुए अपने राज्य का विस्तार किया था।
दाता एक जैसो शिवराज भयों तैसो अब
फतेशाही श्रीनगर साहिबी समाज है।
(मतिराम कृत वृतकौमुदी)
हिमालय के बहुआयामी व्यक्तित्व पुस्तक के अंश :