देवीधुरा स्थित मां बाराही शक्ति का साक्षात स्वरूप मानी जाती है। इस स्थान पर यहां मां दुर्गा बाराही के रूप में एक गुफा में विराजमान है। यह धाम पाषाण युद्ध (बग्वाल) के लिए प्रसिद्ध है। दरअसल रक्षाबंधन के दिन कुमाऊं स्थित धाम में देवी जी को प्रसन्न करने के लिए चार गांवों के लोग आस्था के रूप में एक दूसरे पर पत्थर बरसाते है। जिसे बग्वाल युद्ध कहा जाता है।
उल्लेखनीय है, कि यह युद्ध उत्तराखंड की प्राचीन धार्मिक परंपरा के निर्वहन के लिए श्रद्धापूर्वक मनाई जाती है। सदियों से उत्साह के साथ खेला जाने वाला यह युद्ध अषाढ़ी कौतिक नाम से भी प्रसिद्ध है। चंपावत जनपद के पाटी ब्लाक स्थित देवीधुरा का मां वाराही धाम पत्थर युद्ध (बग्वाल) प्रदेश ही नहीं देश-विदेश में भी प्रसिद्ध है।
प्रत्येक वर्ष रक्षाबंधन के अवसर पर चार खामों-सात थोकों के लोगों के बीच मध्य बग्वाल पूरे जोश और उत्साह के साथ खेली जाती है। इतिहास के जानकार इसे कत्यूर शासनकाल से चला आ रहा लोकपर्व मानते है, वहीं कुछ इस परंपरा को काली कुमाऊं की प्राचीन संस्कृति से जोड़कर देखते है।
लोक प्रचलित मान्यताओं के अनुसार, पौराणिक काल में चार खामों के लोगों ने अपनी आराध्य वाराही देवी को प्रसन्न करने के लिए बारी-बारी से हर वर्ष नर बलि दी जाती थी। किवदंती के मुताबिक, एक साल चम्याल खाम की एक वृद्धा के परिवार की नर बलि देने की बारी थी। उस परिवार में वृद्धा और उसका पौत्र ही जीवित मात्र बचे थे।
लोक कथाओं में ऐसा कहा जाता है, कि बुजुर्ग महिला ने अपने पौत्र की रक्षा हेतु मां वाराही की स्तुति की। इसके बाद स्तुति से प्रसन्न होकर मां वाराही ने वृद्धा को स्वप्न में दर्शन दिए और उसे मंदिर परिसर में चार खामों के बीच बग्वाल खेलने के आदेश देते हुए कहा, कि चार खाम के लोग मंदिर परिसर में बग्वाल खेलेंगे और उस युद्ध में जब एक व्यक्ति के बराबर रक्त बहेगा, तो वे प्रसन्न हो जाएंगी। देवी द्वारा स्वप्न में कही यह बात वृद्धा ने गांव के बुजुर्गों को बताई और तब से नर बलि के विकल्प के रूप में बग्वाल की प्रथा आरंभ हुई।
बग्वाल वाराही मंदिर के प्रांगण खोलीखांण दूबाचौड़ मैदान में खेली जाती है। इसमें चारों खामों के युवक और बुजुर्ग मौजूद रहते हैं। लमगड़िया व बालिक खामों के रणबांकुरे एक तरफ जबकि दूसरी ओर गहड़वाल और चम्याल खाम के योद्धा होते है। रक्षाबंधन के दिन सुबह योद्धा वीरोचित वेश में सज-धजकर मंदिर परिसर में वाराही के जयकारे के साथ मंदिर की परिक्रमा करते है।
मंदिर के पुजारी का आदेश मिलते ही दोनों ओर से पत्थरों को फेंकने का क्रम शुरू हो जाता है। पत्थरों की मार से लोग घायल हो जाते हैं और उनका रक्त बहने लगता है। एक व्यक्ति के बराबर रक्त बहने के बाद मंदिर के पुजारी शंखनाद करते हुए चंवर डुलाकर मैदान में प्रवेश करते हैं, जिसके बाद बग्वाल रोक दी जाती है। इसमें कोई भी गंभीर रूप से घायल नहीं होता। अंत में सभी लोग आपस में गले मिलकर एक-दूसरे की कुशलक्षेम पूछते है।
प्रतिवर्ष रक्षाबंधन के दिन होने वाले पाषाण युद्ध जिसे बग्वाल या आषाढ़ी कौतिक भी कहा जाता है, उस पर उत्तराखंड हाई कोर्ट ने 2014 में पत्थरों से युद्ध पर रोक लगा दी थी। जिसके बाद से फल और फूलों से यह प्राचीन बग्वाल खेलने की परंपरा निभाई जाती है। मेले में धार्मिक कार्यक्रम के अलावा सांस्कृतिक गतिविधियों का भी आयोजन किया जाता है।