उत्तराखंड राज्य के पर्वतीय क्षेत्रों में प्राचीन काल से कई पौराणिक कथाएं प्रचलित है। इसके संबंध में कई तर्क लेख लिखे जा चुके है। दीपावली जिसे बग्वाल पर्व के रूप में गढ़वाल में मनाया जाता है। बग्वाल पर्व के ठीक ग्यारह दिवस बाद ईगास के रूप में दीपावली मनाई जाती है। जिसके संबंध में गढ़वाल में कई मान्यताये प्रचलित है।
इन्ही मान्यताओं के संदर्भ में एक तर्क लेख सोशल मीडिया पर प्राप्त हुआ, जिसके लेखक श्री अंशुल प्रशाद डोभाल है। उनके इसी लेख को तर्क लेख के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है।
“कल शाम के समय मैं शिवनगरी हरिद्वार से देहरादून की ओर ड्राइव कर रहा था। रेडियो पर आकाशवाणी के प्रादेशिक समाचार प्रसारित हो रहे थे। उस समय ग्रामजगत कार्यक्रम प्रसारित हो रहा था, जिसे मै अक्सर सुनता हूँ। दरअसल आकाशवाणी के समाचार प्रामाणिक माने जाते हैं, परन्तु उन्होंने भी बग्वाल के ग्यारह दिन बाद पड़ने वाले ईगास पर्व के संबंध में वही प्रचलित गलत जानकारी प्रसारित कर दी, जिसके अनुसार “गढ़वाल क्षेत्र में श्रीराम के अयोध्या लौटने का विलम्ब से पता चला, इस कारण गढ़वाल क्षेत्र में ग्यारह दिनों पश्चयात दीवाली का पर्व मनाया जाता है।”
इस प्रकार इस प्रकार का सवांद सुनकर मुझे बड़ा क्षोभ हुआ ! यह हास्यास्पद है, क्या हम बेवकूफ हैं ? अब जितने लोगों ने सुना होगा, वे उसे ही सच मानेंगे। मैंने उन्हें कड़ा विरोध दर्ज करते हुए एक मेल भेजी है।
सभी जानते हैं, कम से कम गढ़वाली समाज तो इस बात से परिचित है कि वे गढ़वाल में कब और कहाँ से आये। उदाहण के लिए जिस प्रकार मुझे ज्ञात है, कि हमारे पूर्वज श्री कर्णजीत जी शुक्ल सन 945 में धारानगरी सौराष्ट्र से राजा कनकपाल के साथ, चांदपुर गढ़ी आये। वहाँ हमें समीप ही डोभ नामक स्थान रहने को दिया गया, जिसके कारण हम डोभाल कहलाये।
प्रभु श्रीराम का कालखंड भगवान श्रीकृष्ण से पूर्व का है। श्रीकृष्ण की नगरी द्वारका के समुद्र से मिले अवशेष बताते हैं, कि वहाँ 7,000 से 10,000 साल पुराना शहर था। इस प्रकार से प्रथम तर्क प्रभु श्रीराम और दीपावली इससे पूर्व का त्योहार है। अतः यदि हमारे पूर्वज पिछले 1,000 वर्षो से गढ़वाल क्षेत्रों में निवास कर रहे है, तो दीपावली का पर्व हमारे पूर्वज निश्चित रूप से गढ़वाल क्षेत्र में आने से पहले से मनाते आये हैं। अतः यह कैसे संभव हो सकता है, कि भगवान श्रीराम के अयोध्या आने का सन्देश हमारे पूर्वजो को विलम्ब से प्राप्त हुआ हो ?
महाभारत में जिक्र है, कि उस काल में गर्वक क्षेत्र में खश, कुणिंद, कुषाण, तंगण, परतंगण, भिल्ल, किरात, किन्नर आदि जनजातियाँ निवास करती थी और इन्होंने महाभारत के युद्ध में भाग भी लिया था। इनके वंशज आज भी पर्वतीय कहलाते हैं, इनका रूपरंग, नैन नक्श, रीति-रिवाज, देवी-देवता, त्योहार-परंपराएं, बोली-भाषा, संस्कृति, हमसे भिन्न है।
ये यहाँ के मूल निवासी हैं, जिन्हें हमने पीछे की ओर धकेल दिया। इनको ऊंचे पर्वतीय क्षेत्रों जैसे गंगी (टिहरी), जखोल (उत्तरकाशी) आदि गांवों में देख सकते हैं। मूल रूप से ये पशुचारक हैं, एवं इनके देवता सोमेश्वर हैं। परन्तु यह लोग ईगास पर्व को नहीं मनाते।
दूसरा तर्क बद्रीनाथ के समीप स्थित माणा गांव के पास अति प्राचीन दर्रा है, जहाँ से हज़ारों सालों से व्यापार होता आया है। यह एक वणिक पथ था। तात्पर्य यह है, कि अतिप्राचीन काल में भी यह क्षेत्र कम्युनिकेशन से अछूता नहीं था। गढ़वाल क्षेत्र में प्राचीन काल से आज तक ढोलसागर जैसी महा विद्या विद्यमान है, जो प्राचीन काल से ही सूचना संचार प्रसारण के लिए प्रयुक्त होती थी, जिससे थोड़े से समय में ध्वनि की चाल से सूचना पूरे राज्य में प्रसारित कर दी जाती थी।
अतः यह कहना, कि गढ़वाल के पर्वतीय क्षेत्रों में प्रभु श्रीराम के आने का संदेश देर से पता चला और इसी कारण यहाँ के निवासियों द्वारा ग्यारह बाद दीवाली मनाई गई। तो इस प्रकार अन्य पर्वतीय राज्य कश्मीर से लेकर नेपाल, अरुणाचल तक के हिन्दू सनातनी सभी अपनी-अपनी सूचना के अनुसार 11, 15, 21, या कितने ही, जिस समय उन्हें संदेश प्राप्त हुआ, तो वे दीवाली को अन्य दिन क्यों नहीं मानते ?
ईगास (बग्वाल) कुछ ही पर्वतीय क्षेत्रों में मनाई जाती है, जिस प्रकार रिख बग्वाल या बूढ़ी बग्वाल कुछ ही क्षेत्रों में मनाई जाती है। पहले के समय में हमारे मैदानी क्षेत्र के शिक्षक, हमारा मजाक उड़ाते हुए, एक चुटकले के रूप में इस बात को कहते थे, कि पहाड़ों में श्रीराम के अयोध्या आगमन का पता देर से चला, अतः पहाड़ी ईगास (बग्वाल) मनाते हैं।
ठीक है, चलो मान लिया, तो फिर हम मुख्य दीवाली क्यों मनाते हैं ? इसी प्रकार हरिबोधिनी एकादशी यदि दीवाली समतुल्य त्योहार होता, तो पूरे भारत में कहीं के हिन्दू तो इस दिन दीवाली मनाते। दीवाली, पहले के समय में खुशियों और उल्लास के लिए मनाते थे और राजा द्वारा दीवाली मनाने के आदेश दिए जाते थे।
कई बार राजा के जन्मदिन, विवाह, जीत आदि के अवसर पर भी दीवाली मनाने के आदेश होते थे, लेकिन यदि कोई बहुत ही जनप्रिय राजा रहा हो, तभी उसकी परंपरा लोकमानस में जाती है, या फिर अगले राजा उनको बंद करवा देते हैं। डोभाल वंश को भी एक अहसान के बदले, रजबग्वाल मनाने का ईनाम मिला था, जिसे हम आज भी छोटी दीवाली से एक दिन पहले यानी धनतेरस को मनाते हैं।
“ठीक इसी प्रकार, ईगास (बग्वाल) भी वीर शिरोमणि महाभड़ माधोसिंह भंडारी की भोटान्त (तिब्बत) विजय के उपलक्ष्य में राजा के आदेश से मनाई जाती है। राजा के आदेश थे, कि यह बग्वाल हर साल मनाई जाएगी। यह एक ऐतिहासिक तथ्य है, और ईगास का एक मात्र और प्रामाणिक कारण है। इसके साथ ही यह भी तथ्य है, कि यह लगभग 300 से कुछ अधिक वर्ष पुराना ही त्योहार है, ना कि प्रभु श्रीराम के काल का।”
भोटिया लोगों ने टिहरी नेलंग-थेलंग की सीमा की ओर आक्रमण कर उप्पू-सिराईं तक जीत लिया था। युद्ध में विजयी होने के पश्चात इनकी महत्वाकांक्षा बढ़ती ही जा रही थी और जल्द ही ये लड़ाकू और क्रूर मंगोल जाति पूरे गढ़वाल राज्य को हड़प लेना चाहती थी। अतः गढ़वाल नरेश को मजबूरी में इनका प्रतिकार करना ही पड़ा।
क्योंकि यह विजय जनता की जनभावनाओं से जुड़ी थी अतः जनमानस इस परंपरा का आज तक पालन करता आया है। वास्तव में यह चीन पर भारत की एकमात्र विजय रही होगी। माधोसिंह भंडारी दापाघाटी में सीमांकन हेतु एक ओडा स्थापित करके आये थे, जो वहाँ आज भी है, भोटियों ने उसका हमेशा पालन किया।
आज भी यदि किसी पर भोटिया भूत लग जाता है, तो औजी या मान्त्री आणा देता है, “त्वे माधो सिंह भंडारी की आण पड़े” और भूत छू मंतर हो जाता है। अर्थात माधो सिंह भंडारी का तिब्बतियों पर ऐसा जलावा कायम हुआ, कि उनके नाम से आज भी उनके भूत तक भाग जाते हैं।
माधो सिंह भंडारी गढ़वाल नरेश के सेनापति सामंत थे। सामंतों का एक खुद का प्रभाव क्षेत्र होता था। अतः ईगास (बग्वाल) आज भी एक सीमित क्षेत्र की परंपरा है। माधो सिंह भंडारी को मात्र ‘मलेथा की गूल’ के कारण ही याद किया जाता है, क्योंकि यह प्रत्यक्ष प्रमाण है, बाकी इतिहास किसको याद रहता है। जबकि उन्होंने कई युद्धों में गढ़वाल को विजय दिलाई, ऐसी ही एक विजय औरंगजेब की मुग़ल सेना की नाक काटने वाली नकटी रानी यानी महारानी कर्णावती की जीत के सेनानायक माधो सिंह भंडारी थे।
इसी प्रकार बूढ़ी बग्वाल जो दीवाली के ठीक एक माह बाद, दो दिन, छोटी-बड़ी, मनाई जाती है, वीर भड़ रिखोला लोदी की सिरमौर विजय की याद में मनाई जाती है। वे वहाँ से सिरमौर के राजा को हराकर अपनी कुलदेवी का निशान व छत्र वापस लाये थे, जो उन लोगों ने उनके पिता से युद्ध में छीन लिया था। रिखोला के नाम पर इसे ‘रिख बग्वाल’ कहते हैं, वैसे इनके नाम पर रिखणीखाल जगह का नाम भी है, जो पौड़ी जनपद का एक ब्लॉक है।
इसके विषय में एक बार मैंने किसी से एक विचित्र किस्सा सुना था। जिसके अनुसार, जो किसी ने अज्ञानतावश कहा होगा, कि पूर्व में कोई व्यक्ति था, जो रिक्ख (भालू) से जंगल में एक महीने तक लड़ता रहा और दीवाली के एक माह बाद घर लौटा, तब लोगों ने दीवाली मनाई। ये भी एक चुटकले के जैसा ही है, क्योंकि किसी अत्यंत प्रभावशाली व्यक्ति का, कोई लोक कल्याणकारी कृत्य ही होता है, जिसकी याद को लोग इस प्रकार जीवित रखते हैं।
यह दीवाली जौनसार, जौनपुर, उत्तरकाशी व प्रतापनगर क्षेत्र में मनाई जाती है, संभवतः रिखोला इस क्षेत्र का सामंत था, या फिर सिरमौर के अतिक्रमण से इस क्षेत्र को मुक्त कराने के कारण इस क्षेत्र पर अधिक प्रभाव पड़ा हो।
ये सभी का दायित्व हो जाता है कि हम अपने गढ़वाल के गौरवशाली इतिहास और परंपराओं की जानकारी अपनी आने वाली पीढ़ियों को दें, जिससे कपोलकल्पित या अतार्किक भ्रांतियां न फैलें। हमारी परंपराएं व त्योहारों को हमें जीवित रखना है, साथ ही अपने वंशजों को यह सब धरोहर आगे ले जाने हेतु जागरूक भी करना है।
संदर्भ स्रोत
- गढ़वाल का इतिहास
- गढ़वाल की महान विभूतियां
- हिमालयन गजेटियर
- गढ़वाल
- मेरी जीवन यात्रा
- महापंडित राहुल सांकृत्यायन
- मध्य हिमालय का इतिहास।
- गढ़वाल के मंदिर और लोकदेवता।
लेखक
अंशुल प्रशाद डोभाल