गढ़वाल में कुछ विशिष्ट स्थान ऐसे है, जो अत्यंत दुर्गम क्षेत्रों में स्थापित हैं और इन स्थानों पर विशिष्ट शक्ति संपन्न देवात्माये रहती हैं। हिमालय के इस भू-भाग में सर्वप्रथम बद्रीनाथ भगवान जी का नाम लिया जाता है। भगवान बद्रीनाथ (Badrinath) जी के मंदिर की महिमा का प्रभाव इतना बड़ा है, कि प्रतिवर्ष लाखों तीर्थ यात्री इस स्थान पर दर्शन-पूजन के लिए आते है।
भगवान बद्रीनाथ जी का मंदिर हिमाच्छादित पर्वत श्रृंखला तथा समुद्र तल से 10,350 फिट की ऊंचाई पर स्थित सुरम्य घाटी जो लगभग 3 मील लंबी और 1 मील चौड़ी है, तथा इसके आमने – सामने नर नारायण पर्वत है। इसी बदरी भूमि का तीर्थ के रूप में बड़ा भारी महत्व है स्कंद पुराण में लिखा है:-
बहूनि संति तीर्थानि दिवि भूमौ रसासूच।
बदरी सादृश्य तीर्थ न भूतो ना भविष्यति।।
भगवान बद्रीनाथ धार्मिक दृष्टि से और आध्यात्मिक दृष्टि से गढ़वाल के प्रमुख देवता है। भगवान विष्णु के अवतार को ही भगवान बद्रीनाथ माना जाता है। भगवान विष्णु का यह बद्री रूप सतयुग से यहां विद्यमान है। स्कंद पुराण में तो कृत युग से भी पहले भगवान की स्थिति यहां मानी गई है तथा मंदिर के पास स्थित तप्त कुंड की उत्पत्ति अग्नि तीर्थ से मानी गई है।
भगवान बद्रीनाथ समस्त उत्तराखंड क्षेत्र के मुख्य देवता है। इनकी शक्ति महान है यह सृष्टि के कर्ता- भर्ता और हर्ता हैं। इनमें स्वयंभू शक्तियां है। भगवान बद्रीनाथ का प्रादुर्भाव कब हुआ इस संबंध में स्कंद पुराण का कहना है, कि यह क्षेत्र अनादि है इसमें आदि पुरुष नारायण का निवास बताया गया है और भगवान बद्रीनाथ जी के चार युगों में चार पृथक पृथक नामों का उल्लेख मिलता है।
सतयुग में इसका नाम मुक्ति प्रद क्षेत्र है, त्रेतायुग में इसे योगसिद्धि प्रद क्षेत्र कहा गया है, द्वापर युग में इसका नाम विशाला है और कलयुग में इसे बद्रिकाश्रम कहते है। बद्रीनाथ मंदिर के आस-पास की भूमि बदरी क्षेत्र कहलाती है। इस भूमि के अंतर्गत पांच बदरी है, जिनमें सर्वप्रथम बद्रीनाथ या विशाल बदरी, योग बदरी या पांडुकेश्वर, भविष्य बदरी (तपोवन के निकट) वृद्ध बदरी और ध्यान बदरी (उखीमठ) स्थान पर स्थित है।
भगवान बद्रीनाथ समस्त केदारखंड के इष्टदेव है और प्राचीन काल में वैष्णव धर्म ही उस समय का राजधर्म था। इन्हीं के प्रभाव से अनेक विष्णु मंदिरों को प्रतिष्ठा मिली राज दरबार से इन मंदिरों में पुजारी नियुक्त होते थे, तथा इनकी पूजा-अर्चना के लिए राजकोष से धन दिया जाता था।
भगवान बद्रीनाथ जी के मंदिर की देख-रेख बद्रीनाथ मंदिर समिति ही करती है। यहां का मुख्य पुजारी रावल होता है। आज तक भगवान बद्रीनाथ जी के मंदिर में लगभग 500 रावल हो चुके हैं। भगवान बद्रीनाथ के पुजारियों को श्रीनगर (गढ़वाल) दरबार से रावल की पदवी दी गई थी और यही पदवी केदारनाथ के पुजारियों को भी दी गई है।
भगवान बद्रीनाथ जी का मंदिर शंकराचार्य जी द्वारा बनाया गया है मंदिर में भगवान बद्रीनाथ के शालिग्राम शीला की बनी हुई 3 फीट 9 इंच ऊंची मूर्ति है। मंदिर में दाहिनी ओर नर नारायण जी की मूर्तियां हैं और बायीं ओर कुबेर, नारद जी की मूर्तियां है। मंदिर के बाहरी भाग में गरुड़ जी की विशाल मूर्ति है,तथा पिछले भाग में लक्ष्मी जी का मंदिर है, तथा मंदिर परिक्रमा के दाईं ओर घंटाकर्ण की मूर्तियां है।
भगवान बद्रीनाथ जी के मंदिर के उत्तर की ओर ब्रह्म कपाल तीर्थ स्थित है,जहां यात्री लोग अपने पितरो की तृप्ति हेतु पिंड दान और तर्पण करते हैं। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार इस तीर्थ का नाम ब्रह्म कपाल (Brahma Kapal) इसलिए पड़ा, क्योंकि ब्रह्मा जी के पहले पंचमुख थे, परंतु ब्रह्मा जी अपनी पुत्री संध्या पर आसक्त हो गए थे।
इसके फलस्वरूप भगवान शिव ने अनन्य रूप धारण कर ब्रह्मा जी का सिर काट दिया और वह सिर ब्रह्म हत्या के दोष कारण भगवान शंकर जी के हाथ पर चिपक गया।जिसे छुड़ाने के लिए अंत में वह बद्रिकाश्रम गए यहां पहुंचते ही ब्रह्मा जी का सिर भगवान शिव जी के हाथ से छूट गया और उसी स्थान को ब्रह्म कपाल नाम से प्रसिद्धि मिली।
भगवान बद्रीनाथ जी के पूर्व और पश्चिम में कई हजार फिट ऊंचे पहाड़ हैं। जिनमें देवताओं के अपने-अपने गुप्त मंदिर बताए गए है कभी-कभी रात में इन पहाड़ों पर शंख, घंटा, घड़ियाल कि ध्वनि भी सुनाई देती है।यहां अनेक गुप्त दिव्य वन हैं,जो केवल देवताओं के ही योग्य है। यक्ष, गंधर्व,किन्नर और अप्सराएं आदि भी यहां आते है।
भगवान बद्रीनाथ जी का वर्तमान मंदिर 3000 वर्ष पुराना है। इस तरह यह विशिष्ट स्थान वैदिक पौराणिक काल से अपनी गरिमा के साथ आज भी हमारे समक्ष विराजमान है।