देवों के देव महादेव के पंच केदार में तृतीय केदार भगवान तुंगनाथ मंदिर के कपाट शनिवार को शरद ऋतु के विधिवत पूजा अर्चना के बाद बंद कर दिए गए हैं। समस्त पंचकेदारों में भगवान तुंगनाथ मंदिर सबसे ऊंची चोटी पर विराजमान है। शीतकाल के समय बर्फ पड़ने के कारण शिवलिंग को स्थानीय ग्रामीण पूरे ढोल के साथ डोली को चोपता, भनकुन होते हुए शीतकालीन गद्दीस्थल मार्कण्डेय मंदिर मक्मूमठ में विराजमान कर देते है। इस अवसर पर एक दिवसीय तुंगनाथ महोत्सव का भी आयोजन किया जा रहा है।
प्रातः 9 बजे से भगवान तुंगनाथ मंदिर के कपाट को शीतकाल के लिए बंद करने की प्रक्रिया आरम्भ की गयी। अमर उजाला की रिपोर्ट के अनुसार, मैठाणी ब्राह्मणों द्वारा मठापति राम प्रसाद मैठाणी के हाथों मंदिर के कपाट शीतकाल के लिए बंद करने के संकल्प के साथ ही विधिवत पूजा-अर्चना की गई। इस अवसर पर भगवान शिव के स्वयंभू लिंग को समाधि स्वरुप देकर भव्य शृंगार किया गया।
शीतकाल के लिए तुंगनाथ मंदिर के कपाट बंद होने की प्रक्रिया के दौरान दोपहर 12 बजे भगवान तुंगनाथ की भोग मूर्ति को चल विग्रह डोली में विराजमान करते हुए गर्भगृह से मंदिर के परिसर में लाया गया। मंदिर के परिसर पर नियमानुसार सभी विशेष धार्मिक अनुष्ठान की औपचारिकताओं का निर्वहन के पश्चात दोपहर एक बजे विधिवत रूप से मंदिर के कपाट बंद कर दिए गए।
इस धार्मिक अनुष्ठान के साथ ही चल विग्रह डोली तुंगनाथ मंदिर की तीन बार परिक्रमा के पश्चात शीतकालीन स्थल मक्कूमठ के लिए प्रस्थान किया। भगवान तुंगनाथ की डोली रात्रि प्रवास के लिए अपने पहले पड़ाव चोपता पहुंचेगी। उसके बाद 31 अक्तूबर को भनकुन में विश्राम करने के बाद 1 नवंबर को पंच केदार के तृतीय केदार भगवान तुंगनाथ आगामी छह महीने की शीतकालीन पूजा-अर्चना के लिए अपने मार्कण्डेय मंदिर में विराजमान हो जाएंगे।
एक मान्यता के अनुसार, महाभारत के भीषण संग्राम के बाद पांचो पांडव युद्ध भूमि पर मारे गए अपने परिजनों के दुःख से अत्यंत व्याकुल थे। इस कारण पांडव अपनी व्याकुलता को शांत करने के लिए महर्षि व्यास के पास उपाय पूछने गए। महर्षि व्यास ने पांडवो को बताया, कि युद्ध में उनके हाथो उनके सगे – सम्बन्धी की हत्या के बाद वे ब्रह्म हत्या के प्रकोप में आ चुके है, और इस ब्रह्महत्या के पाप से उन्हें मात्र देवो के देव महादेव शिव ही बचा सकते है।
महर्षि व्यास के कथानुसार इसके बाद सभी भगवान शिव के दर्शन करने हिमालय पर गए, किन्तु भगवान शिव महाभारत के विनाशकारी युद्ध के कारण पांडवो से व्यथित थे। इसलिए पांडवो को भ्रमित करके भगवान शिव भैंसों के झुंड के बीच एक भैंसे का रूप धारण कर उस स्थान से चले गए। इसी कारण शिव को महेश के नाम से भी जाना जाता है।
शिव के दर्शन नहीं देने की स्थिति में भी पांडव हार मानाने को तैयार नहीं थे। बलशाली भीम ने शिव द्वारा धारण भैंसे का पीछा किया। इसी प्रकिया में भगवान शिव द्वारा अपने शरीर के हिस्से पांच स्थानों पर छोड़े। इसके बाद से इन दिव्य स्थानों को केदारधाम अथवा पंच केदार के नाम से पहचाना जाने लगा। धार्मिक मान्यता के अनुसार, तुंगनाथ में ‘बाहु’ अर्थात शिव के हाथ का भाग स्थापित है।