महान देशभक्त पंडित हर्षदेव जोशी जिन्होंने उत्तराखंड में कुमाऊं और गढ़वाल के भाईचारे तथा स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए अपनी सच्ची निष्ठा तथा लगन के साथ जीवन पर्यंत संघर्ष किया और अंततः मातृभूमि के लिए शहीद हो गए। यह अत्यंत चिंतनीय तथा दुखद विषय है, कि गढ़वाल भूमि की स्वतंत्रता, उन्नति और सुरक्षा के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर करने वाले पंडित हर्ष देव जोशी के बलिदान स्मृतियों को अपने उत्तराखण्डी इतिहास से विस्मृत कर दिया है।
18वीं शताब्दी में झिझार (कुमाऊं) के प्रसिद्ध जोशी परिवार में जन्मे महापुरुष पंडित हर्षदेव जोशी ने अपने पिता शिवदत्त जोशी से प्रशासन एवं सेना संचालन की शिक्षा ग्रहण की थी। इनके पिता पंडित शिवदत्त जोशी कुमाऊं राज्य के नरेश कल्याण चंद तथा उनके पुत्र दीप चंद राज्य काल में उस राज्य के मंत्री रहे। विस्तारवादी कुटिल नीति को सर्वोपरि मानने वाले उत्तराखंड राज्य की सीमा से सटे राज्य नजीबाबाद, बरेली और मुरादाबाद के मुगल नवाब शक्तिशाली हो रहे थे और उनकी बुरी निगाहे उत्तराखंड की ओर बढ़ रही थी।
अपने पिता की मृत्यु के पश्चयात कुमाऊं राज्य के मंत्री बने पंडित हर्ष देव जोशी जी के प्रयासों द्वारा उत्तराखंड के कुमाऊं तथा गढ़वाल राज्यों का आपसी भाईचारा तथा प्रेम भाव और भी घनिष्ठ हुआ तथा राज्यों की सुरक्षा हेतु आपसी मतभेद भुलाकर एकता कायम की गई, इसलिए जब कुमाऊं पर 1744 ईo में रोहिलो ने आक्रमण किया तो सहायता के लिए गढ़वाल नरेश आगे आए।
1764 – 65 ईo में एकाएक कुमाऊँ के राजपरिवार में गृह कलह उत्पन्न हुआ, और कुमाऊं राजवंश के परिवार के कुंवर मोहन सिंह ने कुमाऊं नरेश दीपचंद को बंदी बना लिया तथा उनकी पत्नी रानी श्रृंगार मंजरो हत्या करवा दी। इसके उपरान्त पंडित हर्षदेव ने सेना द्वारा कुंवर मोहन सिंह को राज्य से बाहर खदेड़ कर नरेश दीपचंद को आजाद कर दिया। इसके बाद वह मोहन सिंह तराई में जाकर कुमाऊं राज्य की ओर से नियुक्त फौजदार नंदराम से जा मिला और दोनों ने स्पष्ट रुप से राजद्रोह में शामिल होकर धोखे से पंडित हर्षदेव को बंदी गृह में डाल दिया। इसके साथ ही उन्होंने काशीपुर का मैदानी क्षेत्र अवध के नवाब के सुपुर्द कर दिया और रुद्रपुर के इलाके को भी कुमाऊं से हटाकर नवाब के इलाके में शामिल करने के लिए फरमान जारी कर दिया।
जेल के बंदी गृह में गुप्त रूप से यह समाचार प्राप्त होने पर पंडित हर्षदेव जोशी जी को बड़ा दुख उत्पन हुआ और उन्होंने अपने विश्वसनीय व्यक्तियों द्वारा गढ़वाल तथा डोटी के नरेशों के पास उत्तराखंड की एकता तथा अखंडता के लिए सैनिक सहायता हेतु पत्र भेजें। पंडित जी का सन्देश पत्र मिलते ही गढ़वाल नरेश ललित शाह ने तत्काल अपने प्रधान सेनापति प्रेमपति खंडूरी के नेतृत्व में एक विशाल सेना कुमाऊ राज्य की सहायता हेतु भेजी तथा स्वयं भी सहायतार्थ पहुंचे।
स्वघोषित कुमाऊं नरेश मोहन सिंह “बगवाली पोखर” मुकाम पर गढ़वाली सेना द्वारा पराजित होने पर वहां से भागकर सहायता हेतु अवध के नवाब के पास पहुंचा तथा सहायता ना मिलने पर वह रामपुर के नवाब फैजुल्ला खान के पास भी पहुंचा। तब रामपुर के नवाब ने काशीपुर में लूटपाट तो की, परंतु वह गढ़वाल सेना की विरुद्ध सैनिक अभियान के लिए तैयार नहीं हुआ। तब तक पंडित हर्षदेव जोशी बंदी गृह से रिहा हो चुके थे, और कुमाऊं नरेश दीपचंद का स्वर्गवास हो चुका था। इस समय राज्य के भीतर षड्यंत्रों तथा दलबंदी के कारण गृह युद्ध की स्थिति उत्पन्न हो गई थी।
इसके बाद अततः पंडित हर्षदेव जोशी उत्तराखंड को पुनः संगठित राज्य के निर्माण हेतु वह विचार विमर्श के लिए गढ़वाल नरेश ललित शाह से मिले। सभी परिस्थितियों के मद्देनजर यह तय किया गया, कि ललित शाह के दूसरे पुत्र राजकुमार प्रधुम्न शाह को स्वर्गीय कुमाऊं नरेश दीपचंद के धर्मपुत्र की हैसियत से कुमाऊं के राज्य सिंहासन पर कुमाऊं क्षेत्र की उन्नति एवं सुरक्षा हेतु बैठाया जाए। इस प्रकार 1779 ईo में प्रधुम्न शाह कुमाऊं की राजगद्दी पर बैठे और पंडित हर्षदेव जोशी मंत्री के तौर पर उनके सहायक नियुक्त किये गए।
1786 ईo में संतानहीन गढ़वाल नरेश जयकृत शाह की अचानक मृत्यु होने पर गढ़वाल की दशा अचानक अराजक और डांवाडोल हो गई। वही तीसरे भाई कुंवर पराक्रम शाह ने अपने कुछ सलाहकारों की मिलीभगत से गढ़वाल का नरेश बनना चाहा, किन्तु वह स्वभाव से बेहद क्रूर और घमंडी था। इसलिए राज्य के मंत्रियों ने तुरंत संदेश भिजवाया, कि राजा प्रधुम्न शाह तुरंत श्रीनगर आकर गढ़वाल का राज्यभार संभाले।
पंडित हर्षदेव भी पराक्रम शाह के दुश्चरित्र एवं क्रूर स्वभाव से परिचित थे, अतः समस्त उत्तराखंड की भलाई हेतु ,उन्होंने भी अपनी स्वीकृति दे दी, कि प्रधुम्न शाह श्रीनगर(गढ़वाल) जाकर वहां का शासन की बागडोर अपने हाथ में ले, किन्तु प्रधुम्न शाह की श्रीनगर जाते ही कुंवर मोहनचंद, नंदराम तथा उनके सहायक पराक्रम शाह ने अल्मोड़ा पर चारों ओर से संगठित रूप में आक्रमण कर दिया तथा पराक्रम शाह ने कुंवर मोहन सिंह को कुमाऊं का शासक घोषित कर दिया गया।
कुंवर मोहन सिंह ने राजा बनते राज्य का संपूर्ण राजकीय धन लूट लिया और इस कारण राज्य में अराजकता का वातावरण फैल गया। प्रजा भूखी मरने लगी तथा सेना के सिपाहियों को वेतन न मिलने के कारण सैनिको में भी आक्रोश व क्रोध उत्पन हो रहा था। तब पंडित हर्षदेव ने साहस के साथ सैनिक संगठन किया और अल्मोड़ा लौटकर मोहनचंद को संग्राम में परास्त कर बंदी बनाया तथा कुमाऊं की शासन व्यवस्था को सुदृढ़ बनाने के प्रयास भी करें तथा कुमाऊ राजवंश के एक व्यक्ति शिवसिंह को अल्मोड़ा के राज्य सिंहासन पर बैठाया, परंतु कुंवर पराक्रम शाह ने अपनी ओर से एक सेना भेजकर मोहनचंद के पुत्र महेंद्र सिंह को जबरन अल्मोड़ा के राज सिंहासन पर बैठा दिया और पंडित हर्षदेव जोशी को हराकर वहां से हटा दिया।
इसके बाद पंडित हर्षदेव तत्काल गढ़वाल नरेश प्रधुम्न शाह के पास श्रीनगर (गढ़वाल) पहुंचे, और उन्होंने गढ़वाल नरेश से उत्तराखंड के कुमाऊं क्षेत्र की व्यवस्था तथा सुरक्षा हेतु सहायता मांगी। इस वक्त कुमाऊं मे अंतरकलह चरम पर था। जिसका फायदा उठाकर 1790 ईo में नेपाल ने एकाएक प्रबल आक्रमण कर कुमाऊं पर अपना शासन स्थापित कर दिया और प्रदेश के नागरिकों को गुलाम बनाए रखने के लिए कठोरतम राज्य व्यवस्था स्थापना कर शीघ्र ही 1791 ईo में गोरखा सेना गढ़वाल की ओर आक्रमण की लिए आगे बढ़ी। लेकिन गढ़वाली सेना ने नेपाली सेना को लंगूर गढ़ के संग्राम में हरा दिया। गोरखों ने गढ़वाल पर आक्रमण के कई प्रयास किये, परन्तु उन्हें हरबार विफलता ही प्राप्त हुई।
इसी बीच 1795 ईo के भयंकर आकाल तथा 1803 ईo क़े प्रलयकारी भूकंप के कारण गढ़वाल राज्य की दुर्दशा बहुत दयनीय हो चुकी थी और साथ ही गढ़वाल की तत्कालीन मंत्रिमंडल के आपसी कलह तथा महत्वकांक्षी पराक्रम शाह के षड्यंत्र भी गढ़वाल का विनाश के करने में तुले हुए थे। पंडित हर्षदेव जोशी जी के व्यक्तित्व एवं दूरदर्शिता से भयभीत गोरखाओं ने पंडित जी को उत्तराखंड से हटाकर नेपाल ले जाने की योजना बनाई, लेकिन हर्षदेव जोशी ने इस षड्यंत्र को समझकर मौका पाकर मार्ग से ही चकमा दे कर भागकर श्रीनगर गढ़वाल प्रधुम्न शाह के पास पहुंच गए। लेकिन वहां पर पराक्रम शाह तथा उसके सहयोगी मंत्रियों ने पंडित हर्षदेव जी के प्रयासों में बाधाएं उत्पन्न करने का प्रयत्न किया।
सन 1797 ईo में महाराजा प्रधुम्न शाह के वकील (राजदूत) की हैसियत से पंडित हर्षदेव ब्रिटिश पोलिटिकल एजेंट मिस्टर चेरी (Mr.Cherry) के पास बनारस पहुंचे और प्रधुम्न शाह की ओर से उन्हें लिखित शिकायत दी, कि आक्रमक नेपाली सेना कुमाऊं पर बहुत अत्याचार कर रही है और वह गढ़वाल को भी हड़पना चाहती है और उन्होंने अंग्रेजो से सैन्य सहायता मांगी। पंडित हर्षदेव जोशी की नरेश प्रधुम्न शाह के साथ निकटता श्रीनगर के कुछ मंत्रियों तथा पराक्रम शाह को पसंद नहीं थी, इसलिए इन लोगो ने पंडित हर्षदेव को लाचार होकर श्रीनगर गढ़वाल छोड़ने पर मजबूर कर दिया।
हालाँकि इसके बाद भी गोरखाओं को भगाने के लिए उनके प्रयास सदैव जारी रहे। श्रीनगर गढ़वाल की आंतरिक दुर्दशा का फायदा उठाकर गोरखों ने श्रीनगर गढ़वाल पर भी 1803 ईo में प्रबल आक्रमण कर दिया, जिसमें 14 मई 1804 के दिन गढ़वाल नरेश प्रधुम्न शाह देहरादून के खुड़बुड़ा रण क्षेत्र में मस्तक पर गोली लगने से देश के लिए शहीद हो गए। इस गंभीर संकट की बेला में पंडित हर्षदेव जोशी जी ने अपने युवराज सुदर्शन शाह तथा अन्य परिवार के सदस्यों को संभाला तथा अपने साथ कनखल हरिद्वार में उनके लिए पूर्ण सुरक्षा का प्रबंध किया। बता दें, कनखल हरिद्वार में आज भी ‘भारामल की हवेली’ है, जहां वे उस समय ठहरे थे तथा उससे सटा हुआ पहाड़ी मोहल्ला अथवा पहाड़ी बाजार के नाम आज भी उनकी याद दिलाता है।
पंडित हर्षदेव जोशी नेपाल राज्य के विरुद्ध सहायता प्राप्त करने के लिए उत्तर भारत के अनेक शासकों के पास गए, इसी सिलसिले में वह कांगड़ा के नरेश संसारचंद का संदेश लेकर गोरखों क़े विरुद्ध सहायता प्राप्त करने हेतु पंजाब केसरी महाराज रणजीत सिंह के पास भी गए थे। अंग्रेजों की सहायता उन्होंने केवल इसलिए ली थी, कि आक्रमक और क्रूर गोरखों को भगाकर अपने उत्तराखंड को उनके पंजे से छुड़ाकर स्वतंत्र कर सके। जिस प्रकार हमारे देश के महान सपूत नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने भी जापान की सहायता भारत से अंग्रेजों को खदेड़ बाहर करने हेतु ली थी। सहायता लेने से पहले उनकी जो शर्ते थी, उनमें यह बात स्पष्ट थी और अंग्रेजों ने भी उन्हें आश्वासन दिया था, कि वह गोरखाओं को भगा कर उन्हें स्वतंत्र करा देंगे।
लेकिन युद्ध में नेपाली सेना हारने के पश्चात जब अंग्रेजों ने कुमाऊं को स्वतंत्र करने के बजाये उसे अपने अधीन कर लिया, और गढ़वाल नरेश सुदर्शन शाह को जिन्होंने गोरखाओं के विरुद्ध अभियान में अंग्रेजो को पूरी सैनिक सहायता दी थी, उन्हें भी केवल उनका आधा राज्य ही लौटया और आधे राज्य को स्वयं अपने अधिकार में ले लिया, तो इससे पंडित हर्षदेव को बड़ा आघात पंहुचा। अंग्रेजों द्वारा किए गए इस विश्वासघात से व्यथित पंडित जोशी जी ने अंग्रेजों के विरुद्ध अपना कोप प्रकट किया तथा इसी सदमे के कारण 26 जुलाई सन 1815 ईo के दिन गणनाथ मुकाम में महान देशभक्त पंडित हर्षदेव जोशी अपने प्राण त्याग स्वर्ग धाम सिधार गए।
यह भी एक विडंबना है, कि अंग्रेज इतिहास लेखक एटकिंसन ने पंडित हर्षदेव जोशी से इसी कारण अप्रसन्न होकर अपने इतिहास में उनकी निंदा की तथा कुमाऊं एवं गढ़वाल के तत्कालीन कुछ राज्य कर्मचारी जो पंडित हर्षदेव जोशी के शौर्य एवं प्रतिभा संपूर्ण व्यक्तित्व से ईर्ष्या रखते थे, उन्होंने भी ऐतिहासिक तथ्यों को तोड़ मरोड़कर महान देशभक्त पंडित हर्षदेव जोशी पर लांछन लगाने एवं इतिहास को विकृत करने में इतिहास के कथित लेखकों का साथ दिया।