आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी को हिंदी भाषा साहित्य निर्माता के रूप में सदैव याद किया जाता है। उनके इस अतुलनीय योगदान की वजह उन्हें आधुनिक हिंदी साहित्य के दूसरे कालखंड सन 1900 से 1920 को ‘द्विवेदी युग’ के नाम से जाना जाता है। महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा सन 1942 में रचित अद्भुत आलाप की एक कहानी भयंकर भूत-लीला यहाँ पर प्रस्तुत कर रहा हूँ।
अधिक पढ़-लिख गए देशी-विदेशी लोगों को भूत-प्रेतों की कहानियों और उनके अस्तित्व पर हमेशा संदेह रहता है। फिरंगी ब्रिटिश अंग्रेजो का तो कुछ पूछिये ही नहीं। वे तो इन सब बातो को कोरी बकवास समझते समझते हैं। परंतु एक असली अंग्रेज -बहादुर को एक भूत ने इतना छकाया की उसका कलेजा दहल गया। एक प्रकार से भूत ने उन पर दया ही दिखाई है, नहीं तो फिरंगी साहब बहादुर इंग्लैंड लौटकर अपनी कहानी बताने के लिए जीवित ही नहीं बचते।
अंग्रेज साहब बहादुर हिंदुस्तान की एक पल्टन में कर्नल थे। वे कोई ऐसे-वैसे डरपोक आदमी भी ना थे। उनके साथ घटी घटना का जिक्र उनके एक मित्र ने अंग्रेजी की मासिक पत्रिका ‘आकल्ट रिव्यू’ में प्रकाशित की हैं। अंग्रेज कर्नल साहब ने उनके साथ घटी उस घटना की सच्चाई का प्रमाण दिया है। अब अंग्रेज कर्नल की कहानी उन्ही के जुबानी सुनिए—
जिस अजीब घटना का मैं ज़िक्र में करने जा रहा हूँ, उसे हुए कोई 16 वर्ष बीत गए है। उस वक्त मैं भारत में कार्यरत था। मैं अपना नाम उजागर नहीं करना चाहता हूँ, क्योंकि हिंदुस्तान में बहुत से लोग मेरे नाम से परिचित है। मेरे नाम बताने से वे मुझे तुरंत पहचान लेंगे। मैं एक दफे शिकार के लिये अपनी छावनी से दूर स्थित एक गाँव में गया था। मेरे साथ सिर्फ दो लोग थे, मेरा अर्दली और मेरा भोजन पकाने वाला।
दिन-भर में सफर के दौरान मैं घोड़े की पीठ पर सवार रहा और शाम को एक गाँव के पास पहुंच गया। थकान भरी यात्रा के बाद मैं बहुत भूखा और थका हुआ था। कपास के खेतों के बीच बसा यह गाँव रास्ते से थोड़ा हटकर था। एक क़ुदरती तालाब के किनारे ही मैंने अपना डेरा डाल दिया। यह तालाब गाँव के नजदीक ही था। तालाब के किनारे एक बहुत बड़ा बरगद का छायादार पेड़ था।
उसी बरगद के वृक्ष के नीचे मैंने रात भर रुकने का विचार किया। जो कुछ सामग्री वहाँ मिल सकी, उसी से मेरे नौकरो ने मेरे लिये खाना बनाने की तैयारी में जुट गए। जब तक मेरे सेवक भोजन की व्यवस्था कर रहे है, मैं यह देखने के लिये, कि आस-पड़ोस में और क्या है, जगह का दौरा करने के लिए निकल पड़ा। रास्ते पर चलने के दौरान मुझे एक साधु दिखाई पड़ा। ये लोग हिंदुस्तान के सभी स्थानों में अधिकता से पाए जाते हैं।
इस साधु की जटाएँ लंबी-लंबी थी। कमर में एक मैला लँगोटा था। सारे बदन पर राख लिपटी हुई थी। तालाब के दूसरे किनारे पर यह साधु ध्यानमग्न अवस्था में था। इस तरह के धार्मिक संतो का लोग बड़ा सम्मान करते हैं। साथ ही उनसे डरते भी हैं, क्योंकि इन लोगों में अलौकिक शक्तियाँ होती है।
यह अघटित घटनाएँ बताने में वाकपटु होते हैं। ये लोग अपने मस्तिष्क को इस हद तक अपने नियंत्रण में कर लेते हैं, कि जब चाहते हैं, समाधिस्थ हो जाते हैं। इस दशा में इनका शरीर तो जड़वत अवस्था में धरती पर पड़ा रहता है,परन्तु इनकी आत्मा ब्रह्माण्ड में भ्रमण किया करती है।
जब मैं इस बुजुर्ग साधु के पास से गुजरा, तब इसने अपना ध्यान भंग करके मेरी तरफ नजर उठाई। इसने मुझे सलाम किया, और मुझे आगाह किया, कि तुम इस तालाब के पानी को ना तो पीना और ना ही छूना। गलती से भी इस पानी को हाथ भी ना लगाना, नहीं तो कहीं तुम पर कोई आफत ना आ जाय। मुझे लगा, कि इसमें जरूर इसका कोई स्वार्थ निहीत है।
मैंने अपने मन में सोचा कि यह साधु शायद मुझे कोई ऐरा-गैरा आदमी समझता है और यह मुझे भला कैसे सहन होता था। मैंने उस साधु को डांटकर कहा- “चुप रहो।” और मैंने उससे यह भी कहा, कि इस तालाब का पानी पीने से तुम तो क्या, दुनिया का कोई आदमी मुझे मना नहीं कर सकता।
इस दौरान मेरे नौकर भी साधु की बातें सुनकर बहुत डर गए। डर से काँपते हुए मेरे नौकर ने ताल़ाब से पानी निकाल लाया। मैंने उस पानी से अपने बदन को खूब रगड़-रगड़कर धोया। इससे मेरे बदन की थकावट और गर्मी बहुत हद तक दूर हो गई। नहाने के बाद मैं एकदम फिर से तरोताजा हो गया। तालाब की दूसरी और बैठे उस साधु की बात मै लगभग भूल ही गया था।
कुछ देर में मैंने देखा, कि बहुत-से गांववाले और साथ में मेरे दोनो नौकर एक दूसरे तालाब से पानी लाने के लिए जा रहे है। तब मुझे फिर उस साधु की बातें याद आ गई। मैंने इस बात की काफी खोजबीन की, कि ये गांववाले इस नजदीकी तालाब से पानी ना लेकर इतनी दूर उस दूसरे तालाब से पानी क्यों ला रहे हैं।
जाँच पड़ताल मुझे ज्ञात हुआ, कि एक आदमी ने अपनी पत्नी को मार डाला था, और खुद भी इस तालाब में डूबकर आत्महत्या कर ली थी। इस घटना की वजह से यहाँ रहने वालो को मानना था, कि जो कोई इस तालाब का पानी पियेगा या स्नान करेगा, वह मनुष्य उस प्रेतात्मा के द्वारा मारा जायेगा और यदि संयोगवश वह किसी प्रकार बच गया तो उस पर कोई बहुत बड़ी विपदा आएगी।
उस रात को दस बजे के बाद मैंने अपने अर्दली को नौकरों के साथ अगले पड़ाव पर भेज दिया। उनके साथ कुछ कुली भी गए। उनको भेजने के बाद मैं बरगद के उसी पेड़ के नीचे कंबल ओढ़कर लगभग तीन-चार घंटे सोया। रात के दो बजे नींद खुलने के बाद मैं हाथ मै बंदूक लिए घोड़े पर सवार हो गया। मेरे साथ एक रास्ता बताने वाला और मेरा एक नौकर भी खेतों से होकर सीधा ही रवाना हो गए।
मैंने अपने नौकरों से कहा, इसमें डरना क्या है, क्यों दूर की राह जाकर फालतू के फेरे खाये। चलो, सीधे खेतों के बीच से ही निकल चलें। इस समय रात के 3 बज रहे होंगे। खूब ठंडी-ठंडी हवाएं चल रही थी। मैं घोड़े पर सवार था और मेरे दोनों नौकर मेरे आस -पास दौड़ रहे थे। इस वक्त हम एक ऐसे स्थान पहुँचे, जहां दूर-दूर तक तक कपास के खेत थे।
इस दौरान मैंने अचानक आगे की तरफ देखा, तो कुछ दूरी पर मुझे आग का जलता हुआ एक धुंधला-धुंधला सा छोटा गोला दिखाई दिया। मेरा पूरा ध्यान उसी तरफ चला गया। फिर ऐसा प्रतीत हुआ, कि देखते-देखते वह आग का गोला बड़े वेग से मेरी तरफ आ रहा है। मुझे यह लगा, कि वह मात्र एक मशाल है, और मेरी ओर वो बराबर आगे को बढ़ रही है। इस पर मैंने अपने साथ चल रहे उन दोनों सेवकों से पूछा, कि यह जगमगशील अग्नि ज्वाला क्या वस्तु है?
मेरे यह प्रश्न पूछते ही वे लोग भय से बेहताशा चिल्लाने लगे और उनका पूरा शरीर काँपने लगा। अब उनकी सांस फूलने लगी और वे चिल्ला उठे -‘यह तो बिजली है’। यह सुन मेरे आश्चर्य की सीमा ना रही। मुझे समझ में आ गया, कि बिजली से उन दोनों का तात्पर्य उसी तालाबवाले प्रेत से था। मैं उन दोनों से कुछ कह पता इससे पहले वे दोनो कायरों की भांति भयभीत होकर वापस पीछे की ओर भागे।
अब उस स्थान में मैं अकेला रह गया था। उन दोनों की इस कायरता पर मैंने उनको मन ही मन बहुत कोसा। परंतु उनको कोसने से क्या फायदा इसलिए मैंने अपने घोड़े के ऐंड़ मारी और उस दिशा की ओर बढ़ चला जिस तरफ़ से वह ज्वाला उड़ती हुई आ रही थी। कुछ दूरी के बाद अब मुझे साफ-साफ दिखाई दे रहा था, कि वह जलती हुई मशाल एक हिंदुस्तानी के हाथ में है।
इसलिये मैंने हिंदी में कड़क आवाज में उससे कहा, कि तू जहां है, वहीं ठहर जा। मैंने मन ही मन इस बात का प्रण कर लिया था, कि मैं अपने उन दोनो डरपोक सेवकों के अकारण भयभीत होने की वजह का जरूर पता करूँगा। लेकिन मैंने महसूस किया, कि उस मशालवाले पर मेरे चिल्लाने का कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ा है और वह पूर्व की भांति ही निडर होकर आगे की ओर बढ़ रहा है।
उस गुस्ताख की नाफरमानी ने मेरे गुस्से का पारा चढ़ गया। मैंने अपने घोड़े की बगल में जोरदार ऐंड़ मारी और यह ठान लिया, कि मैं उस गुस्ताख मशालवाले को उसकी गुस्ताखी के लिए अपने घोड़े के नीचे कुचल दू़ँगा। पर ये क्या, मेरा घोड़ा भी अचानक बिगड़ उठा। उसने अपनी टापें वहीं धरती के अंदर गाड़ सी दी और हिनहिनाने लगा।
मेरा घोड़ा एक कदम भी उस स्थान से आगे की ओर नहीं बढ़ा। जब मैंने उसे आगे बढ़ाने के लिए जबरदस्ती की, तो वह उस व्यवहार से इतना बिगड़ उठा, कि उसने मुझे लगभग जमीन पर पटक ही दिया था। अब मुझे ऐसा लगा, कि घोड़े का प्रत्येक अंग काँप रहा है। अब मेरे लिये घोड़े से उतर पड़ने के अलावा और कोई चारा शेष नहीं बचा था। जैसे ही मैं घोड़े से उतरा वैसे ही वह घोडा भयभीत होकर वापस पीछे उसी गाँव की ओर भागा, जिसे हम लोगों ने अभी एक घंटे पहले छोड़ा था।
अब मामला धीरे-धीरे संगीन होता जा रहा था। मेरे पास अब ना मेरा घोड़ा था और ना ही वो दोनों आदमी दिखाई दे रहे थे। रात का समय था, रास्ते का कोई पता-ठिकाना नहीं था। खेतों का बीच में मैं अकेला खड़ा था, इस अवस्था में आगे की ओर बढ़ना कठिन है। इसलिए मैंने अपनी राइफल उठाकर अपने कंधे पर रखी और जोरदार आवाज में उसको चेतावनी दी—” तू बिना हिले-डुले एकदम खामोश और अपनी जगह पर खड़ा रह, नहीं तो मैं तुझ गोली मार दूँगा।
कितनी मुश्किल से ये शब्द मेरे मुँह से निकले होंगे, इसका अंदाजा सिर्फ मुझे था। क्योंकि वह आदमी अभी भी उसी वेग से मेरी तरफ दौड़ता हुआ मालूम प्रतीत हो रहा था। अब उस आदमी ओर मुझमें मात्र कुछ ही गज का ही फासला शेष रह गया था। थोड़ा नजदीक से देखा, तो वह आदमी ही नजर नहीं आ रहा था। उस आदमी के शरीर के नाम पर मात्र अस्थिमय कंकाल खोपड़ी थी।
आँखों के स्थान पर उसमें सिर्फ आँखों के काले गड्डे थे। उस आदमी का एक हाथ और उसी से उसने वो मशाल थाम रखी थी। उसके शरीर के बाकी के अंग धुँधले कोहरे और धुएं के समान प्रतीत होते थे। उनकी शरीर में हड्डियाँ भी नहीं दिखाई पड़ती थी। मैं सहसा वहीं पर ठहर सा गया। मेरी उँगली राइफल के ट्रिगर पर थी। उस वक्त वह भूत मुझसे मात्र 10 या 15 फीट पर रहा होगा।
अब देखते ही देखते वो प्रेत एक ओर मुड़ा, और मुझसे कोई बीस फीट पर, पलक झपकते ही वो जमीन के अंदर घुस गया। वो उस वक्त मेरे बहुत करीब था। इसलिए मैं उसे अच्छी तरह से देख सका। उसके ज़मीन में घुसते ही मैं उस जगह की ओर दौड़ा। परंतु मुझे उसका कुछ भी नामोनिशान नहीं मिला। मैंने खीजकर उस जगह पर जोरदार लात मारी। पर वहाँ सिर्फ मशाल की लाल-लाल जलती हुई आग के कुछ अंश शेष बचे थे।
मैंने उस राख के अंश को हाथो से उठा लिया, लेकिन वह इतनी गर्म थी, कि तत्काल ही मुझे उसे फेंक देना पड़ा। यह कार्य मैंने इसलिये किया, जिसमें मेरा संदेह दूर हो जाय और मुझे इस बात का यकीन हो जाये, कि क्या वाकई में वह मशाल थी भी या नहीं। खैर आखिरकार मेरा संदेह दूर हो गया और मेरा हाथ जलने से बच गया। इस बात पर मुझे बड़ा अचंभा हुआ और फिर मैं गांव की ओर पीछे लौटा।
कुछ ही दूर चलने पर सौभाग्य से मुझे अपना घोड़ा चरता हुआ मिल गया। मैं खुशी से उस पर सवार होकर अपने डेरे की तरफ चल पड़ा। बहुत आवाज लगाने पर मुझे अपने उन दोनो भगोड़े सेवकों का पता चला। किसी तरह मैं सूरज के निकलते-निकलते, राम-राम करते हुए वापस अपने पड़ाव पर पहुँचा।
वहीं मेरे साथ घटी इस घटना की खबर मेरे पथ-दर्शक ने हर जगह फैला दी। उस घटना को सुनकर गाँव का नंबरदार मेरे पास आया। उसने मुझसे कहा, साहब, आपको बिजली प्रेत ने दर्शन दिए है। अब आप पर कोई ना कोई आफत आने का भय है। इसके बाद उसने और मेरे नौकरों ने मुझसे बहुत आग्रह किया और मेरे बहुत कुछ हाथ-पैर जोड़े, कि मैं उस जंगल के आस-पास शिकार खेलने ना जाऊ।
उन्होंने कहा, कि साहब, क्या आप उन इंजीनियर साहब की बात भूल गए। जिन्होंने जिस रात बिजली को देखा था, उसके अगले ही दिन उनके तंबू के अंदर तेंदुए ने घुसकर उनको मार डाला था। साहब, आप शिकार को मत जाइये। शिकार पर जाने से आप पर कोई संकट आ सकता है। उन्होंने मुझे ये भी बताया, कि एक भारतीय ने लगभग एक साल पहले इसी तालाब से पानी पिया था। उसका हाल भी बहुत बुरा हुआ था।
उन्होंने बताया, कि जिस मैदान में आपकी और बिजली प्रेत की भेंट हुई थी, उसी जगह में वह आदमी मृत पाया गया। उसके सिर पर जलने का एक बड़ा घाव था। मैं उन लोगों के इस अंधविश्वास पर बहुत जोर से हंसा और शिकार के लिये आगे बढ़ गया। एक तय दूरी पार करने के बाद मैं एक पहाड़ी गुफा के नजदीक पहुंच गया। मेरे सुनने में आया पिछली रात को दो रीछ वहाँ देखे गए है।
मैंने कुछ गांव वालो को आगे भेजा, कि वे हल्ला मचाकर रीछों को गुफा से बाहर निकालने की कोशिश करे। इधर मैं गुफा के मुहाने पर बैठकर मैं रीछों के बाहर आने की राह देखने लगा। अचानक वो दोनों रीछ गुफा से दौड़ते हुए बाहर की तरफ निकले। मैंने उनमें से एक रीछ के पैर फायर किया। गोली उसे लग चुकी थी, लेकिन जैसे ही मैंने अपनी गर्दन दूसरी ओर घुमाई। मैंने आश्चर्य से देखा, कि अचानक एक तीसरा रीछ मेरी ओर आ रहा था।
उसे देखकर मैंने पीछे हटने का प्रयास किया, ताकि मै उस रीछ के हमले से बचूँ, और उस रीछ पर निशाना लगाकर उसे खत्म कर दूँ। लेकिन ऐसा करने के प्रयास में मेरा पैर फिसल गया और मैं फिसलकर एक बहुत गहरे गड्डे में जा गिरा। उस गड्डे में गिरने से मेरा हाथ टूट गया। मेरी कोहनी भी बाजु से उतर गई और एक नुकीली लकड़ी का सिरा मेरे गाल के भीतर घुस गया। जिससे मेरे चेहरे पर एक बड़ा भारी घाव हो गया।
किसी प्रकार मेरे हिन्दुस्तानी सहायको ने मेरी मरहम-पट्टी कर घोड़े पर सवार कर मुझे रवाना किया। मै बहुत मुश्किलों से अपने ठहरने के स्थान तक पहुँच पाया। वहाँ पर मैं कई दिनों तक भयानक ज्वर और शरीर में उठ रहे दर्द की यातनाएँ बर्दास्त करता रहा। तब जाके कुछ दिनों बाद मेरी तबियत ठीक हो पायी।