विश्वविजय का स्वप्न लेकर निकला सिकंदर जिसकी क्रूरता को महिमामंडित करते हुए पश्चिमी लेखकों ने उसे महान की उपाधि का दर्जा दिया हुआ है। वह सिकंदर भारत भूमि हिमालय के वीर गढ़वाली के शौर्य का सामना न कर सका और वापस लौट गया।
गंगाड़ी (गढ़वाली) हिमालय में बसने वाली उत्तर भारत की वीर जाती है। विश्व विजेता का सपना देखने वाले सम्राट सिकंदर महान को इसी गढ़वाली जाती के वीर सैनिको की अदम्य शक्ति से भयभीत होकर भागीरथी तट से निराश और हतोत्साहित होकर लौटना पड़ा था।
“यह खेद का विषय है कि भारतीय इतिहासकारों ने पश्चिमी इतिहासकारों की मान्यताओं को ही अंतिम रूप से सही मान लिया है,भारतीय इतिहासकारों का सिकंदर के आक्रमण का विवरण-यूनानी लेखकों के वर्णन पर आधारित है। यूनानी लेखकों को ना तो भारत देश का सही भौगोलिक ज्ञान था और ना ही वह यहां की लोक भाषाएं समझते थे।”
सिकंदर (Alexander) के भारत पर आक्रमण की चर्चा किसी भी हिंदू लेखक ने नहीं की है। इस संबंध में जो भी विवरण उपलब्ध है, वह यूनानी लेखकों द्वारा ही लिखा गया है। यूनानी लेखकों ने जिस आधार पर सिकंदर के आक्रमण का उल्लेख किया वह लेख किंवदंतियों तथा कथाओं पर आधारित है। पश्चिमी लेखकों ने सिकंदर के आक्रमण पर जो ग्रंथ रचे उसमें उसे समस्त युद्धों का विजेता दर्शाने की कोशिश की और भारतीय लेखकों ने इन्हीं पश्चिमी साहित्य को पूर्ण रूप से ऐतिहासिक मानकर पुस्तकें लिखी तथा उसमे उनके अनेक वर्णन तथ्यहीन है।
सिकंदर के सेनापति सेल्यूकस द्वारा चंद्रगुप्त मौर्य के दरबार में भेजा गया। यूनानी राजदूत मेगस्थनीज की पुस्तक इंडिका तथा महर्षि पाणिनी की अष्टाध्यायी सिकंदर के आक्रमण के विवरण के लिए अधिक उपयोगी और विश्वसनीय स्रोत है।
आचार्य पाणिनि का समय ईसा पूर्व की चतुर्थ शताब्दी का था। आचार्य पाणिनि के साहित्य अष्टाध्यायी में ‘काठिक या श्लाघते’ का वर्णन आया है। ऐसा प्रतीत होता है कठो का प्रथम चरण (उस काल में वैदिक शिक्षण संस्थान को चरण कहते थे) उत्तराखंड में कहीं गंगा तट पर होगा। इसी कारण कठ चरण की रक्षा हेतु कठो ने सांगला घाटी पर सिकंदर को गंगा की ओर बढ़ने से रोकने के लिए मोर्चा लिया था।
यूनानी लेखकों (ऐरियन और मैक्रिनडल) के अनुसार गंगा की ओर बढ़ने से रोकने के लिए सांगल दुर्ग पर का कठैयेन (कठो) ने सिकन्दर के खिलाफ युद्ध किया था। सांगल अथवा सांगला की भौगोलिक स्थिति से स्पष्ट हो जाता है, कि यह भू-भाग गंगा की क्षेत्र की राह पर अथवा उसके पास ही था, तथा ऐसे स्थान पर जहां से गंगा पर आक्रमणकारी सीधा पहुंच सकता था।
यह स्थान सांगला सतलज के पूर्वी तट के निकट रूपीन नदी की घाटी में आज भी स्थित है। सिकंदर के काल में सांगला देश के अन्य प्रमुख नगरों की भांति समृद्ध था तथा उसका वर्गीकरण श्रेष्ठ निर्माण शैली का प्रतीक था। प्राचीन काल में यह भूभाग सुरक्षा की दृष्टि से अति महत्वपूर्ण रहा है। आज भी सांगला घाटी अपना विशेष महत्व रखती है, तथा उत्तराखंड की उतर पश्चिमी सीमा सांगला घाटी के पास मिलती है।
गंगा की भूभाग की ओर उत्तर पश्चिम से आने वाले आक्रमणकारी के विरुद्ध मोर्चा लेने के लिए सांगला घाटी प्राकृतिक दुर्ग है।उत्तराखंड (Uttarakhand) के पश्चिमी भाग में टोंस नदी के निकट काथियान अथवा कठिवान नाम का एक रमणीक स्थान देववन से हिमाचल प्रदेश जाने की राह पर लगभग 24 मील की दूरी पर स्थित है।
यह भी संभव है, कि प्राचीन काल में कठैयेन अथवा कठ जाती का इस स्थान से संबंध रहा होगा। गढ़वाल में आज भी एक वीर जाति “कठैत” नाम से प्रसिद्ध है। इस जाति की सैनिक परंपरा विख्यात है। प्राचीन काल के स्थान, नाम तथा जाति वर्तमान लोक भाषा में मिटे नहीं हैं और पूर्ण रूप से परिवर्तित होने से बचे रहे हैं।
सांगला के युद्ध के संबंध में यूनानी इतिहासकार लिखते हैं कि वहां पर वीर कठैयेन (कठो) ने अन्य कबीलो की सहायता से सिकंदर को गंगा की ओर जाने से रोकने के लिए मोर्चा लिया था लेकिन यदि सिकंदर सचमुच ही सांगला के युद्ध में पूरी तरह विजय पा चुका था तो उसने सीधे गंगा की राह क्यों नहीं ली ? क्योंकि वह सांगला युद्ध से ही भयभीत हो चुका था।
यूनानी लेखक कर्टियस में सांगला कि जातियों के युद्ध का वर्णन करते हुए कहा है कि यह खूंखार लोग कुल्हाड़ी जैसे हथियार से लड़ते थे वह बड़े फुर्तीले भी होते थे और उनका युद्ध कौशल भी निराला था जिससे यूनानी सेना घबरा उठी थी।
यूनानी लेखकों ने सिकंदर की शक्ति को बढ़ा-चढ़ा कर दिखाने के लक्ष्य से लिखा, कि सांगला इस युद्ध में बुरी तरह ध्वस्त हो गया था, परंतु महर्षि पतंजलि के सूत्र संकलादिभ्यश्च के अनुसार सांगला महान वैभवशाली एवं समृद्ध नगर था। इससे सिद्ध होता है, कि सिकंदर के हमले के दौरान सांगला ध्वस्त नहीं हुआ था।
गंगा के पास तक सिकंदर की सेना के पहुंचने के बारे में मेगस्थनीज ने अपनी पुस्तक में लिखा है, कि सिकंदर ने एशिया के अन्य भागों पर विजय प्राप्त कर ली थी और कुछ भारतवंशियों को भी अपने अधीन कर लिया था परंतु जब वह अपनी सेना सहित गंगा पार पहुंचा तब गंगारीड़े (गंगाडी ) की शक्ति का परिचय मिलने पर वह हतोत्साहित होकर वापस लौट गया।
हालांकि विश्वविजय का स्वप्न लेकर निकले हुए सिकंदर को जिसकी क्रूरता को महिमामंडित करते हुए पश्चिमी लेखकों ने उसे महान की उपाधि का दर्जा दिया हुआ है।