प्राचीन काल से ही उत्तराखंड पूरी दुनिया का आध्यात्मिक केंद्रस्थल रहा है। उत्तराखंड स्थित गढ़वाल क्षेत्र को भगवान बद्री का आश्रम और स्वर्गाश्रम भी कहा जाता है। उत्तराखंड आंदोलन के बलिदानियों ने अपनी जिस सांस्कृतिक विरासत को बचाने के लिए प्राणों की आहुति दी थी अब उस देवभूमि उत्तराखंड में पहले लव जिहाद, फिर लैंड जिहाद और अब डेमोग्राफिक चेंज की सुनियोजित ढंग से हो रही जनसंख्या परिवर्तन की आहट सुनाई देने लगी है।
इस वजह से उत्तराखंड के मूल निवासी समाज में अनेकों प्रकार की आशंकाए घर कर रही है. उत्तराखंड के हरिद्वार, उधमसिंह नगर, देहरादून और नैनीताल समेत कई जिलों में डेमोग्राफिक (जनसांख्यिकीय) बदलाव देखने में आ रहा है। स्थिति इतनी विकट है, कि पिछले साल अक्टूबर में उत्तराखंड सरकार ने मैदानी व पहाड़ी जिलों में हो रहे डेमोग्राफिक चेंज को लेकर जिला प्रशासन को सतर्क रहने के निर्देश दिए थे।
राज्य गठन के बाद से लेकर अब तक के दो दशकों में कांग्रेस व भाजपा की सरकारें आई व गईं, लेकिन दबे पांव आ रहे इस गंभीर संकट की आहट को सुनने में नाकाम सियासी पार्टिया विशेष वर्ग के वोटरों को लुभाने के लिए जानबूझ कर राजनीतिक नफा-नुकसान देखती रही।
अब स्थिति इतनी विकट हो गई है, कि सरकार जिला प्रशासन व पुलिस को सतर्क रहने तक की खास हिदायते दे रही है। हरिद्वार, देहरादून, और नैनीताल समेत कई जिलों में एक समुदाय विशेष के लोग क्षेत्र-विशेष में जमीन खरीद कर या अतिक्रमण कर भारी संख्या में बस गए है। इस कारण पहले से उस स्थान पर रह रहे लोगों ने अपनी जमीनों को औने-पौने दामों पर बेच कर कहीं और बसना उचित समझ रहे है।
प्रशासन मकान मालिकों और व्यापारियों को भी नौकरों का सत्यापन करने के निर्देश समय-समय पर देता रहता है। इसके बावजूद अधिकांश लोग बिना सत्यापन के घूमते नजर आते है। परिणामस्वरुप बड़ी तादात में बाहरी लोग देवभूमि उत्तराखंड में तमाम काम-धंधों के बहाने बस गए। डेमोग्राफिक चेंज पर खुफिया विभाग भी स्थिति पर अपनी नजर बनाये हुए है।
इंटेलीजेंस एजेंसियां भी मानती है, कि पिछले कुछ वर्षों में बाहरी लोगों की आवक काफी बढ़ी है। निर्माण क्षेत्र में मजदूर, ऑटोमोबाइल कारीगर, फल विक्रेता, दर्जी, मीट कारोबार, नाई, फेरीवाला आदि क्षेत्रों में मुख्य रूप से बाहरी लोगों और एक वर्ग विशेष का कब्जा है। दूरदराज के छोटे कस्बों में भी यही हाल है। इससे पहाड़ में तेजी से डेमोग्राफिक चेंज हुआ है।
ऐसे में अगर चंद वोटों के लालच में देवभूमि उत्तराखंड की भूमि पर अतिक्रमण और कब्ज़ा जारी रहा, तो वो दिन दूर नहीं जब सांस्कृतिक पतन के साथ-साथ सीमांत राज्य उत्तराखंड की अन्तर्राष्ट्रीय सीमाओं पर भी संकट खड़ा हो जाएगा। अगर सबकुछ जानकर भी उत्तराखंड में सियासत करने वाले दलों के नेत्र नहीं खुले, तो आने वाली पीढ़ियां कभी भी वोटखोर नेताओं को क्षमा नहीं करेंगी।