देवभूमि उत्तराखंड में तेजी से कम हो रही कृषि भूमि और बाहरी लोगो द्वारा अंधाधुन जमीनों की खरीद फरोख्त के कारण एक बार फिर भू- कानून सुधार के लिए आवाज बुलंद होने लगी है। हालाँकि यह विषय आज का नहीं है, लेकिन राजनितिक दलों की निष्क्रियता और उदासीनता के चलते यह मुद्दा हमेशा अनदेखी का शिकार हुआ है।
उत्तराखंड (Uttarakhand) में होने वाले आगामी विधानसभा चुनावो के मद्देनजर एकाएक इस विषय पर लम्बे समय से खामोशी की चादर ओढे राजनितिक दल अचानक सक्रिय हो गए है। राज्य के निर्माण के बाद से उत्तराखंड के निवासियों के लिए भू -कानून का विषय बेहद सवेंदनशील रहा है। राज्य में एक बड़ा तबका के आर्थिक रूप से बेहद कमजोर होने के कारण बाहरी लोगो द्वारा उनकी जमीनों को बेहद कम कीमत में खरीदा जा रहा है।
तत्कालीन भू-कानून का विरोध करने वाले आंदोलनकारियों का तर्क है, कि वर्तमान में उत्तर प्रदेश जमींदारी उन्मूलन और भूमि व्यवस्था सुधार अधिनियम 1950 (अनुकलन एवं उपरांतरण आदेश 2001) (संशोधन) अध्यादेश-2018 के मुताबिक राज्य का बाहरी व्यक्ति नए संसोधनो के बाद १२५ एकड़ भूमि खरीद सकता है। आंदोलनकारियों का कहना है, कि सरकार ने उत्तराखंड में भूमि की खरीद फरोख्त के नियमों को इतना आसान बना दिया है,कि वर्तमान में राज्य से बाहर का कोई भी पूँजीपति प्रदेश में कितनी नहीं भूमि खरीद सकता है।
वर्तमान भू -कानून में संसोधन के चलते उत्तराखंड में कृषि भूमि के नाम पर खरीदी गई जमीन का कुछ समय बाद भू उपयोग बदलकर उन्हें कंक्रीट के जंगलो में तब्दील किया जा रहा है। दुर्भायग्य से देश में उत्तराखंड ही एकमात्र ऐसा राज्य है, जहां इंडस्ट्री में निवेश के नाम पर बाहरी उद्योगपतियों के लिए पर्वतीय क्षेत्रों में जमीन खरीदने के द्वार खोल दिए है।
पहाड़ी क्षेत्रों से पलायन के रोकथाम की खोखली बात करने वाली अब तक तमाम राज्य सरकारे पर्वतीय जमीनों को बड़े पूजीपतियों के द्वारा लीलने का इन्तजार कर रही है। और चिंताजनक रूप से इस कारण पर्वतीय क्षेत्रों की डेमोग्राफी भी प्रभावित हो रही है। उत्तराखंड के नवनिर्वाचित युवा मुख्यमंत्री से राज्य की जनता को यह आशा है, कि वह मामले का संज्ञान लेकर मौजूदा भू कानून का दुरुपयोग के खिलाफ आवश्यक कड़े कदम उठाएंगे।