ब्रिटिश शासन काल में भारतीय जनता अंग्रेजो की शासन नीतियों के अलावा देशी रियासतों के नवाबों और राजाओ द्वारा भी शोषण का शिकार थी। शोषित जनता की आंतरिक पीड़ा की कोई सुनवाई नहीं थी। वे किसी भी माध्यम के द्वारा अपना दुःख – दर्द बयान नहीं कर सकती थी। अलग अलग प्रकार के करो से त्रस्त जनता का आर्थिक शोषण चरम सीमा तक पहुंच गया था।
देवभूमि उत्तराखंड का टिहरी रियासत भी राजा की नीतियों से त्रस्त थी। ऐसे विकट समय में टिहरी का एक क्रांतिकारी श्रीदेव सुमन (1916 -1944 ) ने राज्य की जनता को उसके अधिकार दिलाने के लिए स्वयं को बलिदान कर दिया। श्रीदेव सुमन का बलिदान टिहरी राज्य के विलीनीकरण की और एक महत्वपूर्ण कदम सिद्ध हुआ। इस बलिदान से प्रभावित होकर पंचायतो की स्थापना ने इसे अधिक सुगम और सरल बनाया।
टिहरी रियासत की जनता अंग्रेजो की भेदभाव वाली नीति, रियासत के कर्मचारियों के आतंक, प्रशासन की जनशोषण नीति, असंतोसजनक वन नीति, यातायात की असुविधा ,प्रशासन में जनप्रतिनिधि का आभाव, जीवकोपार्जन के साधनो का आभाव, कई ऐसे कारण थे, जिनके कारण जनता का जमकर उत्पीड़न हो रहा था।
टिहरी रियासत की राज व्यवस्था में जनता से प्रकृति से मिलने वाला गंगाजल पर टैक्स लगाने से लेकर रोजमर्रा की छोटी – छोटी वस्तुओ पर भी भारी भरकम टैक्स लिया जाता था। इसके साथ ही भू – व्यवस्था के नाम पर करो का अत्यधिक बोझ जनता पर डाला गया। टिहरी रियासत में अकाल से त्रस्त जनता पर राज कर्मचारीयो की भोजन व्यवस्था और बेगार प्रथा एवं नजराने इत्यादि के नाम पर जमकर शोषण किया गया।
टिहरी रियासत की अनैतिक राज व्यवस्था के विरुद्ध बुलंद आवाज उठाने और उनसे छुटकारा दिलाने के लिए टिहरी के बमुन्ड पट्टी के जौल गांव में 25 मई 1916 को पंडित हरिराम बडोनी के घर अमर बलिदानी श्रीदेव सुमन (Sri Dev Suman) जी का जन्म हुआ। अपने अधिकारों के लिए जागरूक एवं शिक्षा के क्षेत्र में रूचि रखने वाले श्रीदेव सुमन टिहरी रियासत की जनता के दुःख देख कर शांत नहीं बैठ सके।
श्रीदेव सुमन द्वारा एक ओर देश के राष्ट्रीय स्तर के नेताओ को टिहरी रियासत की सच्चाई से रूबरू करवाया, तो वही दूसरी ओर जनता को संगठित करने के लिए ‘टिहरी प्रजामंडल’ की स्थापना की।
श्रीदेव सुमन द्वारा ‘अखिल भारतीय देशी राज्य लोक परिषद’ तथा ‘अखिल भारतीय कांग्रेस’ के समय-समय पर आयोजित होने वाले अधिवेशनो में टिहरी की जनता का प्रतिनिधित्व कर अपने क्षेत्र की समस्याओं से राष्ट्रीय नेताओं को निरंतर परिचित कराने के साथ ही ‘टिहरी प्रजामण्डल’ की गतिविधियों को समुचित रूप संचालित करने के दायित्व का भी निर्वाहन किया।
इसी अंतराल में श्रीदेव सुमन और ‘टिहरी राज्य प्रजामंडल’ के बढ़ते हुए प्रभाव को देखकर एवं संस्था की गतिविधियों पर नियंत्रण रखने के उद्देश्य से टिहरी राज्य व्यवस्था प्रतिनिधि ने “रजिस्ट्रेशन ऑफ एसोसिएशन एक्ट” पारित कर दिया। जिसके अंतर्गत किसी भी अपंजीकृत संस्था को रियासत में काम करने का अधिकार नहीं रह गया था।
इस दौरान टिहरी प्रजा मंडल संस्था की ओर से टिहरी प्रशासन के सम्मुख निम्नलिखित मात्र तीन मांगे रखी गई, जो जनजीवन को सामान्य करने के लिए पर्याप्त थी।
- पौण टोटी बंद हो
- बरा – बेगार बंद हो
- राज्य में उत्तरदायी उत्तरदाई शासन स्थापित हो
पौण टोटी : खाने की साधारण वस्तुओं को छोड़कर दैनिक जीवन में प्रयोग होने वाली, अन्य वस्तुओं पर जो महसूल (टैक्स ) टिहरी रियासत में प्रवेश करते चुंगी -चौकियों पर वसूला जाता था, उसे ‘पौण टोंटी टैक्स’ कहा जाता था। पौण टोंटी टैक्स के तहत नहाने और कपड़े धुलने का साधारण साबुन, विभिन्न प्रकार के तेल, साधारण कपड़े, खाने और पकाने के बर्तन, बटन, चीनी, उन, ऊनी कंबल समेत स्टेशनरी का सामान आता था। और तो और रियासत के बाहर से सिलवाकर निजी प्रयोग के लिए लाये गए कुर्ते – पजामे पर भी टैक्स देना पड़ता था।
पौण टोटी टैक्स के अंतर्गत टिहरी रियासत में बाहर से लाये इन सामानो पर प्रवेश के समय चुंगी – चौकियों पर वस्तुओं के क्रय मूल्य पर एक आना – तीन पाई प्रति रुपए की दर से पौण टोटी टैक्स वसूला जाता था। रोजमर्रा इस्तेमाल में आने वाली निजी प्रयोग की छोटी सी छोटी वस्तुओं पर भी टैक्स लिया जाना, टिहरी की जनता को बहुत अखरता था। रियासत की सीमा पर स्थित प्रत्येक चुंगी पर शासन का एक पहरेदार आने – जाने वालों की वोथगी (पोटली या थैला) खोलने के लिए तैयार बैठा रहता था। जाँच पड़ताल के दौरान पहरेदार का व्यवहार जनता के प्रति अत्यंत अपमानजनक और आपत्तिजनक होता था।
बरा – बेगार
बरा : टिहरी रियासत के महाराजा द्वारा राजा और राज कर्मचारियों के लिए जनता से बिना किसी भुगतान के साल में दो बार (दोनों फसल पर) खाद्य सामग्री जबरन वसूली जाती थी। इसे ही ‘बरा’ टैक्स कहा जाता था। राज कर्मचारियों के लिए ‘बरा’ की एक मात्रा निर्धारित थी। लेकिन राज कर्मचारियों द्वारा टिहरी की जनता से निर्धारित मात्रा से कहीं अधिक ‘बरा’ वसूला जाता था और मनमानी मात्रा में खाद्य सामग्री उपलब्ध ना करने पर जनता को अपमानित और प्रताड़ित किया जाता था।
बेगार : बेगार के अंतर्गत टिहरी रियासत के महाराजा और उसके मेहमानो तथा राज कर्मचारियों के भ्रमण के समय रियासत की जनता को बिना किसी मजदूरी के कार्य करना पड़ता था। रियासत के सार्वजनिक निर्माण कार्यों में भी ‘बेगार’ लिए जाने की प्रथा प्रचलित थी। टिहरी की जनता को हर परिस्थिति में अनिवार्य रूप ‘बेगार’ प्रथा के अनुसार राज व्यस्था की सेवा में बिना भुगतान के काम करना पड़ता था। जनता इस ‘बरा‘ वसूलीबाजी और बेगार प्रथा से भी अत्यधिक परेशान और व्यथित थी।
टिहरी रियासत की तत्कालीन परिस्थितियों का वर्णन श्री देव सुमन जी द्वारा शब्दों में
“कितना अन्याय है यह, एक तो राज्य के असली अन्नदाता को दिनभर 18 घंटे तक अपना खून पसीना बहाकर अपने बाल – बच्चों के भरण-पोषण का सामान जुटना है और इन्हीं हालातो में भी अनिवार्य रूप से अपनी मेहनत की कमाई से सरकारी टैक्स चुकाना है। इसके साथ ही बेगार प्रथा और प्रभु सेवा के नाम पर रियासत के महाराजा की अमानवीय रीति के सामने झुकना हो और इन सब के बाद भी उसे मताधिकार की नागरिक हैसियत से भी हाथ धोना पड़े “….
टिहरी रियासत की शासन व्यवस्था ने ‘टिहरी प्रजा मंडल’ की इन तीन मांगो पर विचार करने के बजाये, अहंकारी नीति अपनाते हुए , उन्होंने ‘टिहरी प्रजामंडल’ संस्था को टिहरी की जनता से दूर रखने का प्रयास किया। जबकि टिहरी प्रजामंडल संस्था का उद्देश्य रियासत की अव्यवस्थाओं को दूर करने में राज्य सरकार को सहयोग करना था।
श्रीदेव सुमन की आवाज दबाने के लिए टिहरी रियासत की शासन व्यवस्था ने उन्हें जेल में बंद कर दिया गया और अपना पक्ष प्रस्तुत करने के लिए उन्हें वकील की सुविधा भी नहीं दी गई। उन्हें जेल में तरह -तरह की यातनाएं दी गई। श्री देव सुमन को प्रशासन ने राजनीतिक कारणों से जेल में बंद किया था, किन्तु उन्हें शासन द्वारा राजनीतिक कैदी का दर्जा नहीं दिया गया।
जेल में सजा के दौरान श्रीदेव सुमन को भारी-भरकम बेड़ियां से बांधा जाता था। जेल में उन्हें शासन बदला लेने की नियत से उन्हें बुरी तरह से प्रताड़ित कर रहा था। श्रीदेव सुमन से उनके व्यक्तिगत वस्त्र और बिस्तर ले लिए गए और उसके बदले में जेल के पुराने कंबल, टाट, कुर्ता और एक टोपी दे दी गई। कठोर कारावास की सजा के अंतर्गत उनका स्वास्थ्य खराब होने पर उनकी चिकित्सा की समुचित व्यवस्था भी नहीं थी। इस असहनीय अमानवीय अत्याचारों से तंग आ कर श्रीदेव सुमन ने जेल में आमरण अनशन शुरू कर दिया।
श्रीदेव सुमन द्वारा आमरण अनशन शुरू करने की प्रतिक्रिया स्वरूप शासन ने उन पर भीषण अत्याचार शुरू कर दिए हैं। श्रीदेव सुमन की मृत्यु की जांच के लिए गठित लोक परिषद जांच समिति की रिपोर्ट के अनुसार, आमरण अनशन के प्रारंभिक दिनों में श्रीदेव सुमन को बेंतों और डंडों से बुरी तरह से मारा – पीटा जाता था। इसके आलावा उन्हें जेल प्रशासन द्वारा जबरन खाना खिलाने का प्रयास किया जाता था।
अपने प्रयासों में जेल प्रशासन को सफलता ना मिलने पर उनके आमरण अनशन के पांचवें दिन उन्हें उनकी बैरक नंबर 8 से निकालकर जेल की अस्पताल की एक कोठरी में बंद कर दिया गया। जेल अस्पताल की उस कोठरी में भी उनके पैरों में निरंतर भारी भरकम बेड़ियां पड़ी रहती थी। उनके मुख को जबरन औजार से खोल कर उन्हें दूध पिलाने का प्रयास किया जाता था।
निरंतर 84 दिनों लम्बे आमरण अनशन के बाद टिहरी रियासत के तकरीबन 28 वर्षीय नवयुवक श्रीदेव सुमन ने 25 जुलाई 1944 को अपने जीवन और परिवार की तनिक भी चिंता ना करते हुए, टिहरी रियासत की जनता के नागरिक अधिकारों के लिए स्वयं को होम कर दिया। श्रीदेव सुमन द्वारा अहिंसा के मार्ग पर चलकर एक ऐसी वैचारिक क्रांति का उदय किया, जिसके तेज से उत्पन्न तीव्र लहर तब तक नहीं रुकी जब तक, कि मूल लक्ष्य की प्राप्ति नहीं हो गयी।
श्रीदेव सुमन के बलिदान का ही परिणाम था, कि टिहरी रियासत की जनता के अधिकारों की प्राप्ति उनकी शहादत के कुछ ही वर्ष बाद हो गयी। वीरात्मा श्रीदेव सुमन द्वारा जो त्याग और हिम्मत के आदर्श उपस्थित किये, वह चिरकाल तक सदैव लोगो को याद रहेगा। टिहरी ही नहीं हिन्दुस्तान के स्वाधीनता संग्राम के इतिहास में भी श्रीदेव सुमन का नाम सदा अमर रहेगा।
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