इतिहास गवाह है, कि जब-जब देश की स्वतंत्रता और स्वाभिमान पर बाहरी आक्रमण हुआ है, तो गढ़वाल के वीर सैनिकों ने वर्तमान समय की तरह पूर्व काल में भी आगे बढ़कर अपना जीवन बलिदान कर मातृभूमि को अर्पित किया है।
उत्तराखंड के प्राचीन इतिहास के अनुसार 1786 ई के तुरंत पश्चात गृह कलह के कारण कुमाऊं क्षेत्र की हालत बहुत डगमगा गई थी। उत्तराखंड की एकता के समर्थक राजनीतिज्ञ पंडित हर्षदेव जोशी क्षेत्र की सुरक्षा के लिए सतत प्रयास कर रहे थे। प्रधुम्न शाह को उस समय गढ़वाल तथा कुमाऊं दोनों क्षेत्रों का नरेश घोषित किया गया तथा इस निर्णय का दोनों राज्य की जनता ने स्वागत किया।
इसके उपरांत कुमाऊ राज्य के दावेदार मोहनचंद ने इस प्रयास का विरोध किया और स्वयं कुमाऊं के राज्य के सिंहासन पर बैठ गया तथा राज्य सत्ता हथियाने के पश्चात संपूर्ण राज्य के खजाने को लूट लिया। प्रजा की हालत बहुत ही गंभीर हो गई थी और जनता भूख से तड़पने के लिए मजबूर होने लगी, इसके परिणामस्वरुप कुमाऊं में तीव्र अंतर्कलह होने के कारण वहां की स्थिति भी अस्थिर हो गई थी।
कुमाऊं क्षेत्र की अस्थिरता का समाचार मिलते ही महत्वकांक्षी पड़ोसी राज्य नेपाल में कुमाऊं पर 1790 ई में अचानक आक्रमण कर अपना राज्य स्थापित कर लिया और उसके बाद 1791 ई में गोरखा सेना ने पश्चिम की ओर से गढ़वाल की लंगूर गढ़ी क्षेत्र पर हमला कर दिया था। परंतु वीर गढ़वाली सैनिको ने बहादुरी से मुकाबला कर उस आक्रमण को विफल कर दिया था। इसके बाद लाचार होकर गोरखा सेना को वापस लौटना पड़ा।
इसके बाद लगातार 11 वर्षों तक गोरखाओ ने गढ़वाल के सीमा से सटे क्षेत्रों में लूटपाट के छुटपुट प्रयास किए, जिसका सफलतापूर्वक गढ़वाली सैनिकों ने मुकाबला कर आक्रमणकारियो का दमन किया। दुर्भाग्य से 1795 ई में गढ़वाल की जनता को दुखदाई अकाल और 1803-4 ई में आये विनाशकारी भूकंप के रूप में भयंकर दैवीय प्रकोप सहने पड़े। भूकंप ने गढ़वाल की दशा और दिशा दोनों ही परिवर्तित कर दी थी।
श्रीनगर का प्राचीन भव्य एवं विशाल राज महल का अधिकांश भाग भी ध्वस्थ हो गया था। बार-बार प्राकृतिक आपदा और विनाशकारी भूकंप ने गढ़वाल की जनता का मनोबल कमजोर कर दिया था। महाराज प्रधुम्न शाह ने इस संकट की घड़ी में धैर्य रखकर अपनी प्रिय प्रजा का मनोबल बढ़ाया और हरसंभव सहायता देने का प्रयास भी किया।
1804 ई के मार्च के प्रारंभ में नेपाल का भूतपूर्व नरेश श्री रणबहादुर शाह जिसने अपने नाबालिग पुत्र को राज्य सिंहासन पर बैठा कर अपने को केवल राज्य का मुख्त्यार घोषित किया। गोरखाओ के सेनापति अमर सिंह थापा के अधीन अति विशाल गोरखा सेना कुमाऊं में एकत्रित होकर गढ़वाल पर आक्रमण के लिए आगे बढ़े।
गढ़वाल के वीर सैनिको ने पहले गोरखाओ का मंदाकिनी नदी की घाटी के मोर्चे पर तथा उसके बाद राजधानी श्रीनगर युद्ध के मोर्चे पर जबरदस्त मुकाबला किया। देश रक्षा करते हुए करीब 200 गढ़वाली सैनिक शहीद हो गए। गोरखाओं ने राजधानी श्रीनगर पर कब्जा कर लिया। तब गढ़वाल नरेश प्रधुम्न शाह ने अपनी गढ़वाली सेना के साथ तुरंत अलकनंदा पार आए। यहाँ पर भी आक्रमक गोरखा सेना से युद्ध करने के पश्चात उन्हें हटना पड़ा।
इसके बाद कई मुठभेड़ों में गोरखाओ को टक्कर देने के बाद नरेश प्रधुम्न शाह ने देहरादून क्षेत्र में सेना का मुकाम शिवालिक पहाड़ियों के मध्य खेड़ा नामक स्थान पर कायम किया। शीघ्र ही एक और संग्राम में प्रधुम्न शाह ने अपनी गढ़वाली सेना द्वारा आक्रमक गोरखाओ की फौज को परास्त कर दिया। पराजय का समाचार मिलते ही सेनापति अमर सिंह थापा ने स्वयं एक विशाल सेना लेकर गढ़वाली सेना पर आक्रमण कर दिया।
इस आक्रमण का भी गढ़वाली सेना द्वारा बहादुरी से मुकाबला किया गया और दोनों ओर से कुछ सैनिक मारे गए तब राजा प्रधुम्न शाह ने विचार किया, कि आक्रमक गोरखों को परास्त कर देश से बाहर खदेड़ने के लिए उन्हें भी एक विशाल सैनिक शक्ति का संगठन खड़ा करना होगा।
इसके बाद गढ़वाल नरेश प्रधुम्न शाह ने तुरंत कनखल हरिद्वार के लिए प्रस्थान किया और अपने गढ़वाल राजवंश का रत्न जड़ित विशाल स्वर्ण सिंहासन 1,50,000 रुपयों में तथा महत्वपूर्ण बहुमूल्य आभूषणों को 50,000 रुपयों में बंधक रखकर 12,000 सैनिकों की एक शक्तिशाली सेना तैयार की।
1804 में अपनी गढ़वाली सेना के बल पर नरेश प्रधुम्न शाह ने अपने राज्य को स्वतंत्र करने के लिए आक्रमक गोरखा सेना के विरुद्ध देहरादून के खुड़बुड़ा रणक्षेत्र में बड़े जोर के साथ अंतिम संग्राम किया। जिसमें हजारों सैनिक मारे गए महाराज ने अपनी अपूर्व शक्ति का परिचय दिया। महाराज शेर की भांति दहाड़ मारते हुए जिधर को झुक पड़ते, उस दिशा के गोरखा सैनिको को साफ कर देते थे।
भीषण युद्ध के दौरान गोरखा सेना के एक सैनिक ने अपनी बंदूक से निशाना लगाकर गोली महाराज प्रधुम्न शाह के माथे पर दाग दी। जिसके लगते ही प्रधुम्न शाह भूमि पर गिरकर देश की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए बलिदान हो गए। उनके शहीद होते ही गढ़वाल की सेना तितर-बितर हो गई और समस्त उत्तराखंड पर 1815 ई तक नेपाल का एकछत्र राज्य कायम हो गया।
उल्लेखनीय है कि खुड़बुड़ा के युद्ध के पश्चात नेपाल की आक्रमक सेना अपने साम्राज्य विस्तार हेतु पश्चिम की ओर बढ़ती हुई कांगड़ा तक पहुंची। परंतु कहीं भी उनका ऐसा प्रबल मुकाबला नहीं हुआ जैसा मुकाबला गढ़नरेश प्रधुम्न शाह ने किया।
अमर बलिदानी गढ़वाल नरेश प्रधुम्न शाह ने देश की रक्षा के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर जीवन की जो आहुति दी, वैसे उदाहरण इतिहास में यदा-कदा ही मिलते हैं। शहीदों के रक्त से सींची हुई खुड़बुड़ा की भूमि हमारी पूज्य तीर्थ स्थली है।